
किताबें मिलींः मैं कहूं जगबीती, हिंदी गजल की नई चेतना और ख्वाहिशों के खांडववन
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मैं कहूं जगबीती जब हम जग की बात करते हैं तो जग में ही सम्मिलित होते हैं। उसमें हर कोई समाहित रहता है। इस संग्रह में गिरिराज किशोर के सामाजिक, राजनीतिक, भाषा और अन्य प्रश्नों से जुड़े लेख हैं,
जो विभिन्न समाचारपत्रों में समय-समय पर छपते रहे हैं। समय को पहचानने और यथार्थ को जानने के लिए जीवन को प्रश्नों में बांटना पड़ता है। तभी हम अपने समय के बारे में समझदारी बना सकते हैं। कोई भी
समय शिलावत नहीं, बल्कि फैली हुई धरती की तरह है। अलग-अलग तरह की रसूम की फसल के लिए धरती को काटते नहीं, बल्कि रकबों में बांट लेते हैं। इस तरह अनुभव, विचार और वास्तविकताओं को इबारत में ढालते
हैं। गिरिराज किशोर ने इस पुस्तक में उन सब सवालों को अभिव्यक्ति देने की कोशिश की है, जिससे शब्दों के माध्यम से हमारी संवेदना का हिस्सा बन जाए। गिरिराज किशोर कहते हैं कि ‘मेला भले उठ जाए,
सवालों के रूप में वह काफी समय तक दिमाग में रहता है। जीवन में कई तरह के मेलों से होकर गुजरना पड़ता है, चाहे लेखक हो या सामान्य व्यक्ति। असहिष्णुता को लेकर बहुत से सवाल उठे। कुरान में खुदा ने
फरिश्तों को इजाजत दी थी कि वे अपनी असहमति प्रकट कर सकते हैं। ताज्जुब है कि जीवन में कई बार इस तरह के खुदाई आदेशों के भी बरक्स जाते हैं। ईश्वर हो या अल्लाह सबका आदेश एक ही है कि इंसान सच का
पालन करे। क्या हम करते हैं!’ ऐसे अनेक प्रश्न यह किताब उठाती है। मैं कहूं जगबीती : गिरिराज किशोर; अमन प्रकाशन, 104 ए/80 सी, रामबाग, कानपुर; 295 रुपए। हिंदी गजल की नई चेतना ज्ञानप्रकाश विवेक
की हिंदी गजल आलोचना केंद्रित यह तीसरी पुस्तक है। लंबे समय से वे न सिर्फ आधुनिक भावबोध की गजलें लिख रहे हैं, बल्कि आलोचना के क्षेत्र में भी वे निरंतर गतिशील रहे हैं। हिंदी गजल आलोचना के लिए
उन्होंने बिल्कुल अलग किस्म के उपकरण ईजाद किए और हिंदी गजल की परख दृष्टि से पड़ताल करते हुए उसे विमर्शतलब बनाया। इस पुस्तक में तीन पीढ़ियों के गजलकारों पर बेहद मानीखेज और चेतना संपन्न तबसरा है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र, शमशेर बहादुर सिंह, दुष्यंत की गजलियत पर बिल्कुल नए तौर-तरीके से चर्चा है, तो उसके बाद की पीढ़ी के गजलकार हरजीत सिंह, अदम गोंडवी, नार्वी, सुल्तान अहमद, माधव कौशिक, ध्रुव
गुप्त जैसे हिंदी के विशिष्ट गजलकारों की रचनाधर्मिता का बाशऊर मूल्यांकन है, तो युवा हिंदी गजलकारों की भावभूमि गजल की जमीन, बदलते हुए मुहावरे, नए समाज को देखने का नया नजरिया तथा गजल के लिए वे
जिस नई भाषा-शैली का प्रयोग कर रहे हैं, उन सब तत्त्वों पर बड़ी सूक्ष्मता और शाइस्तगी के साथ विमर्श है। ज्ञानप्रकाश कहते हैं कि इस पुस्तक को तैयार करने की जरूरत इसलिए महसूस हुई कि हिंदी गजल
जैसी विधा के साथ बेरुखी और उपेक्षापूर्ण व्यवहार हो रहा है। हिंदी गजल की नई चेतना : ज्ञानप्रकाश विवेक; प्रकाशन संस्थान; 4268-बी/3, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली; 500 रुपए। ख्वाहिशों के
खांडववन क्या विकास बाहरी रंग-रूप को प्रभावित करने वाले भौतिक उपरणों में बदलाव का नाम है? या व्यक्ति और समाज के स्तर पर मनुष्यता और संस्कृति के अधिकाधिक उदार, सहिष्णु और समन्वयकारी इंसानी
मनोवृत्ति? अपने पहले उपन्यास ख्वाहिशों के खांडववन में युवा लेखिका योगिता यादव ने इसी सवाल को गहरे कन्सर्न और रचनात्मक दबाव के साथ उठाया है। दिल्ली सरीखे महानगरों का कॉस्मोपोलिटन विस्तार
गांवों और खेतों को लीलने की विनाश-कथा ही नहीं कहता, गांवों में धड़कती जिंदगियों-संस्कृतियों, संबंधों के ताने-बाने को भी छिन्न-भिन्न कर डालता है। बार-बार उजड़ने और बसने की जीवंतता को जीती
दिल्ली यहां एक बार फिर विनाश और पुनसृजन के स्वप्न के बीच अपनी अस्मिता को पाने की जद्दोजहद में लीन है, लेकिन वर्चस्ववादियों की ताकतों को धता बता कर इस बार लेखिका निर्माण का दायित्व हाशिए की
अस्मिताओं को सौंपती है। ‘घायल की गति घायल जाने’ वाली इस ब्रिगेड के पास अभाव, शोषण, दमन के बीच भाई-चारे को पहचानने और जमीन के साथ जुड़े रहने की संवेदना है तो अपने खंडित सपनों को पूरा करने का
हौसला भी। स्वत:स्फूर्तता ‘ख्वाहिशों के खांडववन’ की ताकत है और इसके पाठ की कुंजी शीर्षक के भीतर छिपी प्रतीकात्मकता में दिल्ली के दिल में बसे गांवों में बोली जाने वाली भाषा नया आस्वाद देती और
नए विषय को संवेदना की घटना के साथ विश्लेषित करने की मांग भी करती है। ख्वाहिशों के खांडववन : योगिता यादव; सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली; 300 रुपए।