
पर्व: होली तेरे रंग अनेक
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शास्त्री कोसलेंद्रदास वासंती बयार की उमंग के साथ परंपरा को अपने भीतर समेटे होली आ रही है। होली सनातन पर्वों और त्योहारों में आनंद का सर्वश्रेष्ठ रसमय उत्सव है। क्या निर्गुण और क्या सगुण,
होली के रंगों की छाप सब पर लगी है। वासंती माधुर्य दृष्टि का दूसरा नाम है- होली। वास्तव में होली संपूर्णता का उत्सव है, जो सामाजिक सामूहिकता का कारण है। होली की आहट शुरू हो जाती है फाल्गुन
मास के शुरू में ही या यों कहिए कि मकर संक्रमण से ही, पर यह पूरी तरह व्यक्त होती है ‘उत्तरा फाल्गुनी’ नाम-संकेत को वहन करने वाली पूर्णिमा तिथि यानी फाल्गुनी को। फाल्गुनी पर ही वसंत या मधु ऋतु
जो भी कहें पूर्ण अभिव्यक्ति पाती है। यह प्रकट होती है पके हुए अनाज के मीठे दानों में, आम की गदराई मंजरियों में, खिल उठी हरी घास में, रात-बिरात कूकती कोयल में और सबसे बढ़ कर मधु बरसाती सुरम्य
चांदनी रातों में। ऋषि और कृषि से जुड़ी होली वैदिक काल से लेकर आज तक होली ऋषियों और कृषकों द्वारा मनाई जाती रही है। गुरुकुलों में वटुक फाल्गुनी पूर्णिमा को ‘साम-गाम’ यानी सामवेद के मंत्रों का
राग और ताल में गान करते थे। सामवेद से जुड़े ‘ताण्ड्य महाब्राह्मण’ के इन मंत्रों का सीधा संबंध होली से है- गावो हादृदृरे सुरभय इदम्मधु। गावो घृतस्य मातर इदम्मधु।। एक ओर गुरुकुलों में होली पर
‘हुताशनी’ अनुष्ठान होता है, वहीं नई फसल के तैयार हो जाने पर किसान और नागरिक चटकीली रंग-बिरंगी होली खेलते हैं। वैदिक संस्कृति ने होली को सर्वप्रथम देवता ‘अग्नि’ से मिलाया। धरती पर उपजे नए
धान्य को ऐसे थोड़े खाया जाता है? जौ-गेहूं की चमचमाती बालियों को ‘अग्नि देवता’ को समर्पित किया जाता है। यजुर्वेद ने नव सस्य से पैदा नए धान्य को ‘वाज’ कहा है। होली पर अग्नि-ज्वाला में ‘वाज’ की
आहुति देकर फिर उन पकी हुई बालियों को प्रसाद रूप में ग्रहण करना है। यह ‘नवधान्य-इष्टि’ नाम का वैदिक यज्ञ है। फसल से जुड़ा होने के नाते होली जीवन को चलाने वाला उत्सव है। वेदों में वर्णित चार
उत्सवों में होली भी है। यह जरूर है कि वैदिक काल में जो ‘होलाका’ थी, वह अब ‘होली’ है। उल्लास और आनंद बांटती होली भारत रत्न से सम्मानित डॉ. पांडुरंग वामन काणे ने ‘धर्मशास्त्र के इतिहास’ में
होली को भारत में सबसे बड़े उल्लास और आनंद का उत्सव माना है। होली मनाने में पूरे देश में भिन्न-भिन्न मान्यताएं और भावनाएं हैं। बंगाल को छोड़ कर होलिका-दहन प्राय: सर्वत्र होता है। बंगाल में
फाल्गुन पूर्णिमा पर श्रीकृष्ण का झूला प्रसिद्ध है। यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि होली पर रंग खेलने की अवधि भी पूरे देश में अलग-अलग है। कहीं रंगीली बौछारें होली के अगले दिन बरसती हैं। कहीं
पांचवें दिन, तो कहीं आठवें दिन और कहीं पूरे पखवाड़े तक। इन सबके पीछे जो पारंपरिक गूढ धार्मिक तत्त्व छिपा है, वह है पुरोहितों द्वारा होलिका पूजन और श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ होली खेलना।
संस्कृत और प्राकृत में होली होली का एक पुराना साहित्यिक वर्णन सातवीं सदी के संस्कृत नाटककार और कन्नौज के महाराज हर्षवर्द्धन ने अपने ‘रत्नावली’ संस्कृत नाटक में किया है। वहां हो रही होली
‘वसंतोत्सव’ है। हर्षवर्द्धन ने पिचकारी का संस्कृत नाम दिया है- शृंगक। कौशांबी में दिन भर नाच-गान चलता है और फिर सांझ में लोग जुटते हैं कामदेव के पूजन के लिए। राजा उदयन अपने ‘मकरंद-उद्यान’
में लगे लाल अशोक के वृक्ष में कामदेव या प्रद्युम्न के विग्रह का पूजन करते हैं। नागरिक कामदेव के मंदिर में जाकर उन्हें पूजते हैं तथा दांपत्य में ‘अंतरंगता’ बढ़ाने की याचना करते हैं। प्राकृत
में पहली शताब्दी के असपास लिखी ‘गाहा सतसई’ ने होली को ‘वसंतोत्सव’ न कह कर ‘फाल्गुनोत्सव’ कहा है। यहां के ‘फाल्गुनोत्सव’ में नदी किनारे इकट्ठे युवक-युवतियां एक-दूसरे पर बिना किसी भेदभाव के
नदी का कीचड़ उछाल रहे हैं। ‘गाहा सतसई’ की होली गांव की है। इसलिए गांवों के सारे संसाधन होली खेलने के काम आते हैं। गौर करने की बात है कि जब ‘गाहा सतसई’ की होली खेली जा रही थी, तब वात्स्यायन
अपने ‘कामसूत्र’ में सुवसंतक, उद्रक्ष्वेडिका और अभ्यूषखादिका जैसे उत्सवों की चर्चा कर रहे थे। इनमें ‘सुवसंतक’ अब मनाए जाने वाली वसंत पंचमी है। ‘उद्रक्ष्वेडिका’ पानी की पिचकारियों से रंग खेलने
का उत्सव है। ‘अभ्यूषखादिका’ नए धान्य को आग में भून कर खाने का उत्सव है। ‘कामसूत्र’ की होली मुक्त एवं स्वछंद हास-परिहास का उत्सव है। नाच-गान, हंसी-ठिठोली और मौज-मस्ती की त्रिवेणी। लोक में
होली लोक साहित्य में होली का मनोहारी और सजीव वर्णन हुआ है। पिछली शताब्दी के रससिद्ध संस्कृत कवि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने ‘जयपुरवैभवम्’ में एक ही श्लोक में उर्दू, ब्रज, ढूंढ़ाडी और संस्कृत,
चार भाषाओं का अनूठा प्रयोग होली के लिए किया है, जो दुर्लभ है- मौसिमे बहार देख खोला मुंह बुलबुलों ने आतिशये हिज्र का निकाला इश्क ने शोला दूधिया छनाओ यार! नीठ नरचोला मिल्यो बोला भर पीके फिर
बोलो बस बम भोला। आओला कदेक, कद गाओला रंगीली फाग ढोला! कद गोराजी ने हिवडै लगाओला मानिनामनङ्गेनादृद्य दोलामधिनीतं मनो नो लास्यं दधाति रसिकानां किमसौ होला। होली पर यह कैसी प्रेम की आंख-मिचौली
है कि चहुं ओर होली की धूम मची है। होली की मादकता ने लाज-शरम हटा कर रख दी। ब्रज में एक भी नवेली नारी नहीं बची, जो होली पर कन्हैया के प्रेम रंग में न रची हो। एक गोपी सांवरे के रंग में ऐसी रंगी
कि श्यामसुंदर की सलोनी सूरत को इकटक निहारते हुए कान्हा से याचना करती है- खेलिए फाग निसंग ह्वै आज मयंक मुखी कहे भाग हमारौ तेहु गुलाल छुओ कर में पिचकारिन मैं रंग हिय मंह डारौ। भावे सु मोहि
करो रसखान जू पांव परों जनि घूंघट टारौ वीर की सौंह हौं देखि हौं कैसे अबीर तौ आंखि बचाय कै डारौ।। निर्गुणियों की निराकार होली निर्गुणियों की होली में आदिम रंग का गहरा चमत्कार है। उनकी होरी
नाच-गान और धूम-धड़ाके से दूर है। नाम जप को महत्त्व देने वाले निर्गुणी संप्रदायों के लिए यह पर्व भागवत महापुराण के प्रह्लाद उपाख्यान से जुड़ा है। वे मानते हैं कि संसार में प्रह्लाद ने भगवान के
नाम जप पर विश्वास कर अनूठी निष्ठा प्रकट की। विश्नोई संप्रदाय जो एक प्रकार से प्रह्लादपंथी है, होली की रात को शोक में मनाता है। गुरु जांभोजी ने कहा, ‘प्रहलाद से वाचा कीन्हीं, आयो बारां काजै’
यानी प्रह्लाद भक्त को दिए वचनानुसार लोगों के कल्याण के लिए वे धरती पर प्रकट हुए हैं। भक्त प्रह्लाद विश्नोइयों के आदिगुरु हैं। विश्नोइयों में होलिका दहन नहीं किया जाता। उनकी मान्यता है कि
होलिका भक्त प्रह्लाद को मारना चाहती है, इस कारण सबमें शोक छाया हुआ है। शोक से निवृत्ति के लिए विश्नोई-जन होली की रात जागरण और प्रह्लाद चरित का पाठ करते हैं। सिर्फ खिचड़ी खाते हैं। लालासर,
बीकानेर के स्वामी सच्चिदानंद बताते हैं कि होली के दूसरे दिन शोक निवारण करने के लिए यज्ञ होता है, जिसमें ‘पाहल’ तैयार किया जाता है। ‘पाहल’ यानी यज्ञ वेदी के ईशान कोण में रखा जल कुंभ। इस जल
कुंभ का इस्तेमाल शोक निवृत्ति के साथ ही साल में एक बार ही होने वाले सामाजिक सद्भाव के लिए किया जाता है। आपसी मनमुटाव दूर करने के लिए पाहल हाथ में देकर नाराज लोगों का समझौता करवाया जाता है।
मीरा की होली शील और संतोष की केसर घोल कर प्रेम की पिचकारी से भिगोती है। गुलाल के उड़ने से सारा गगन लाल हो गया है, जिस पर विधाता का रंग उड़ रहा है। मीरा होली के चार दिनों को असाधारण रूप से
प्रकट कर रही है- फागुन के दिन चार रे होली खेल मना रे। श्याम रंग में रंगी मीरा की चुनरिया को श्याम पिया खुद रंगने आता है। अब भले बदलते परिवेश की काली परछाई आत्मा से जुड़े परंपरा के इन अनूठे
रंगों को बदरंग करने पर तुली है, पर यह रंग तो ऐसा है, जिसे बिना आंखों वाले सूरदास भी पहचानते हैं- सूरदास की काली कमरिया चढ़त न दूजो रंग! ल्ल